रविवार, 4 जुलाई 2010

नक्सलवाद उन्मूलन में केंद्र की भूमिका ---इच्छाशक्ति का अभाव या वोट की राजनीति




कहतें हैं की जहाँ इच्छाशक्ति होती है वहां रास्ते खुद खुद बन जातें हैं , मगर लगता है की ये बात हमारे देश की केंद्र सरकार की समझ में अभी तक नहीं आयी है तभी तो नक्सलवाद देश की सुरक्षा के के लिए खतरा बना हुआ है और लगातार फन फैला रहा है , और सरकार अभी तक नीति बनाने में ही जुटी है मगर नतीजा शुन्य है , हाँ कभी-कभी किसी नक्सली की गिरफ्तारी पर पुलिस अधिकारी अपनी पीठ ज़रूर ठोक लेते हैं मगर नक्सलवाद के नाम पर पुलिस के जवानों की हत्याओं का दौर ज़ारी है मगर सरकार अभी तक ये तय नहीं कर पायी है की एंटी नक्सल अभियान में सेना उतारी जाए या नहीं हवाई हमले कों ले कर अभी भी असमंजस की स्थिति बनी हुई है मुझे याद है झारखण्ड के पूर्वी सिंहभूम जिला का एक छोटा सा अनुमंडल है धालभूमगढ़, वहां के प्रखंड पदाधिकारी प्रशांत कुमार लायक कों दिन दहाडे एम् .सी . सी. के उग्रवादी कार्यालय से उठा कर ले गए ,मामला पूरे राज्य में चर्चित हुआ था शिबू सोरेन की सरकार थी लागातार सात दिनों तक असमंजस की स्थिति रही और अंतत: दो लोगो कों छोड़ा गया तब जा कर लायक साहब रिहा हुए वो भी मीडिया के प्रयास से। इस पूरे काण्ड में मीडिया ने बहुत सकारात्मक भूमिका निभाई। में खुद पूरे समय लायक साहब के परिवार के साथ पल-पल मौजूद था और सारे घटना कों मैंने करीब से देखा यहाँ मैं इस चर्चा कों थोड़ी देर विराम देना चाहूँगा मेरा मानना है की उग्रवाद के पनपने में सरकारी तंत्र और उसमें व्याप्त भ्रष्टाचार भी दोषी है ध्यान देने वाली बात है उग्रवाद वही है ज़हां विकास नहीं है यही कारण है की ये उग्रवादी अनपढ़ नौजवानों कों बड़ी आसानी से बरगला कर अपने जैसा बना देतें हैं मुद्दा वही होता है सरकार की गलत नीतियां और सामाजिक और आर्थिक पिछड़ापन इस अपहरण वाली घटना के समय एक बात और निकल कर सामने आयी की एक पुलिसे वाले ने अपनी पहली पत्नी से छुटकारा पाने के लिए उसे और अपने ससुर कों हत्या और उग्रवाद के झूठे केस में फंसा दिया जब अपहरण हुआ और नक्सली मामलो से सम्बंधित सारे केसो की समीक्षा की गयी तो पुलिस महानिरीक्षक रेज़ी डुंगडुंग ने यह पाया की बहादुर मार्डी और उसकी बेटी जसमी मार्डी कों उसके पुलिस पति रामराइ मार्डी ने ही फसाया है और उस पर विभागीय कारवाई होगी ताकि फिर से इस तरह की घटना की पुर्नावृत्ति हो मगर कुछ नहीं हुआ हाँ वो बेक़सूर ज़रूर साल भर उस गुनाह केलिए जेल में रह गए जो उन लोगो ने किया ही नहीं था। अक्सर ऐसा होता है की पुलिस पैसे या दुसरे कारणों से बेगुनाह लोगो कों फसाती है और उसके बाद या तो वो व्यक्ति आत्महत्या कर लेता है या अपराधी बन जाता है , मगर उस पुलिस वाले पर कोई करवाई नहीं होती जो एक व्यक्ति की सामाजिक हत्या कर उसे गलत रास्ता दिखा देता है यानी जब वो व्यक्ति बेगुनाह था तब भी उस के पीछे पुलिस और जब उसी पुलिस ने उसे गुनेहगार बनाया तब भी वो उस के पीछे तो दोषी कौन है ?आप अच्छी तरह जान लीजिये मैं ये मानता हूँ और लोगो को भी मानना चाहिए की आज भी पुलिस में इमानदार लोग हैं पर उनकी सुनता कौन है ? हाँ तो अब मुद्दे पर आतें हैं हमबात कर रहें थे उग्रवाद पर, इस से मुझे याद आया हालांकि तब में बहुत छोटा था मगर बात तीन दशक से ज्यादा पुरानी नहीं है उस समय श्रीमती इंदिरा गाँधी देश की प्रधानमंत्री थीं और कुछ सिख अलगाववादिओं ने जनरेल सिंहभिंडरवाला के अगुवाई में सिखों के लिए अलग राष्ट्र खालिस्तान की मांग की थी इसको ले कर एक संगठन का भी गठन हुआ था और बाद में यह पक्का आतंकवादी संगठन बन गया और पूरे पंजाब में आग लगा दी। जहाँ देश में रह रहे कुछ सिख पूंजीपतियों ने इस संगठन को मजबूत किया वही विदेश में रहने वाले सिक्खों ने भी इस संगठन को आर्थिक मदद दे कर अपना समर्थन दिया इसका परिणाम ये हुआ की इस संगठन ने आतंक मचाना शुरू कर दिया और सीधे सरकार को चुनोती देने लगे तब केंद्र मैं इसी कोंग्रेस पार्टी की सरकार थी और श्रीमती गाँधी ने अपनी कठोर इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए कसम सी खा ली की इस उग्रवादी संगठन को उखाड़ फेंकना है बस फिर क्या था कुंवर पाल सिंह गिल पंजाब के पुलिस महानिदेशक बना कर भेजे गए और एक सूत्री काम दिया गया की पंजाब को आतंकवाद मुक्त करना है किसी भी कीमत पर गिल ने इस काम को बखूबी अंजाम दिया मगर प्लान बना कर चूँकि पंजाब के क्षेत्र जंगलो और खेतो वाला था सो पुलिस ने बख्तरबंद गाड़ियों की जगह बख्तरबंद ट्रेक्टर खेतो और जंगलो मैं दौड़ा कर उग्रवादिओं कों पकड़ना और मारना शुरू किया नतीजा यह संगठन टूटने लगा और अंत में भिंडरवाला अकेला पड गया और सर छुपाने की कोशिश करने लगा मगर उसके पीछे पड़ी केंद्र सरकार और गिल ने अंत में एक अभियान चला कर उसे भी मार गिराया और पंजाब आज तक शांत है आज हमारे पास पुलिस है हथियार हैं मगर प्लान नहीं है यही कारण है की जंगलो में इन उग्रवादिओं के हाथो हर बार पुलिस मात खा रही है और कीमत चूका रहे हैं बेगुनाह जवान अपनी जान दे कर अगर हम लिट्टे की बात करें तो आत्मघाती हमलो के जन्मदाता इस संगठन की श्रीलंका में सामानांतर सरकार खुलेआम चलती थी ये संगठन भी तमिलो केलिए अलग मुल्क की मांग कर रहा था और इसका दखल श्रीलंका से हो कर भारत तक पहुंचा था इसका कारण था की यहाँ तमिलो की संख्या बहुत अधिक है पहले तो इसने आन्दोलन का रूप लिया लेकिन बाद में इसने आतंकवाद का रूप अख्त्यार कर लिया और बहुत ही खतरनाक रूप में सामने आया इस संगठन ने तत्कालीन प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी समेत तीन बड़ी - बड़ी हस्तियों कों अपने आत्मघाती हमलो से मौत के घाट उतार कर उग्रावाद की बड़ी ही भयावह तस्वीर पेश की इसका आतंक भी लगभग तीन दशको तक भारत और श्रीलंका ने संयुक्त रूप से झेला आखिर महिंद्रा राजपक्षे जैसे राष्ट्रपति ने इस संगठन पर अपनी निगाहे टेढ़ी की और इसकोमिटटी में मिला दिया लिट्टे के सारे ठिकाने तहस -नहस कर दिए गए और अंत में प्रभाकरन भी मार दिया गया श्रीमती गाँधी और राजपक्षे ने यह साबित कर दिया की सरकार यदि इमानदारी से चाह ले तो कुछ भी मुश्किल नहीं अब यह देखा जाये की इस अभियान की सफलता मैं रोड़े क्या हैं ? इस अभियान की सबसे बड़ी रूकावट वोट की राजनीति है नक्सल समर्थित कुछ नेताओं का अपना एक बड़ा वोट बैंक है जिसके कारण हर बार सरकार के ही कुछ लोग इस अभियान का विरोध करतें हैं।कई बार झारखण्ड के कुछ नेताओं पर चुनाव में नक्सली समर्थन हासिल करने के आरोप भी लग चुके हैं इसके अलावा राज्य और केंद्र के सुरक्षा बलों में आपसी सामंजस्य का आभाव है जिसका लाभ इन नक्सलियों कों मिल जाता है। मुझे याद है २९ अप्रैल कों में टाटानगर रेलवे स्टेशन पर खड़ा था तभी मेरी मुलाकात एक वरिष्ट पुलिस अधिकारी से हुई उन्होंने बस इतना कहा की सरकार अगर के. पी. एस. गिल वाले सिद्धांत कों लागू कर दे और मुझे बस दो कम्पनी सी. आर .पी . एफ की बटालियन दे तो इनलोगों का सफाया कोई बड़ा काम नहीं है। मगर हम मजबूर हैं बड़ी कोफ़्त हुई ये सुन कर की काम करने कों लोग तेयार बैठें हैं मगर उनको आदेश नहीं है। तो क्या उग्रवाद यूं ही पनपता रहेगा या कोई उम्मीद की जाए ..................जल्दी कीजिए चिदंबरम जी सिर्फ उग्रवाद के उन्मूलन का प्लान बनाने से कुछ नहीं होगा पुलिसिंग में भी सुधार लाना होगा

सोमवार, 7 जून 2010

झारखण्ड फिर राष्ट्रपति शासन की ओर , जिम्मेवार कौन ?






खंड- खंड झारखण्ड आज की राजनातिक दशा देख कर तो यही लगता है , कभी पूरा संथालपरगना जिसके कदमो में सर झुकता था आज वही व्यक्ति लाचार , परेशान सा अपनी बची हुई जिंदगी मैं राजनैतिक भविष्य तलाश रहा है . जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ शिबू सोरेन की तीन बार झारखण्ड के मुख्यमंत्री बने मार्च २००५ में १० दिनों में चले गए ,अगस्त २००८ में फिर ६ महीने के लिए गद्दी पर आसीन हुए मगर तमाड़ उपचुनाव में राजनीति के नौसीखिया राजा पीटर के हाथो बुरी तरह पराजय के बाद बड़ी बेआबरू हो कर गद्दी छोडनी पड़ी , और झारखण्ड राष्ट्रपति शासन में चला गया ,मगर शिबू सोरेन का मुख्यमंत्री की गद्दी का मोह कम नहीं हुआ और फिर एक बार दिसम्बर २००९ से मई २०१० तक गद्दी पर बैठे . और आज झारखण्ड फिर राष्ट्रपति शासन की चपेट में है . आखिर क्यों ? क्या सिर्फ कुर्सी के लिए झारखण्ड को राजनीति की प्रयोगशाला बनाना यहाँ की साढ़े तीन करोड़ जनता के साथ अन्याय नहीं है ? याद कीजिए ६० -७० के दशक के उस शिबू सोरेन को जिसके एक आवाज़ से संथालपरगना के आदिवासी उठते थे और बैठ जातें थे, सूदखोर और महाजन लोग जिसकी एक हूंकार से कांप उठते थे , जिसको देवता के तरह पूजा जाता था , देवदूत कहा जाता था , जिस गाँव से शिबू सोरेन गुजर जातें थे वहां शराब की भट्टियाँ बंद हो जाती थी . लोगो को यह आशा थी की जब झारखण्ड राज्य बनेगा तब शिबू सोरेन इस राज्य की तस्वीर और तकदीर दोनों बदल देंगे . मगर उसी शिबू सोरेन ने कुर्सी के लिए झारखण्ड की जनता को धोखा दे दिया आज राज्य की राजनेतिक अस्थिरता के लिए सिर्फ और सिर्फ शिबू सोरेन और उनकी पार्टी झारखण्ड मुक्ति मोर्चा जिम्मेवार है . एक राज्य का इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा की गठन के १० सालो के अन्दर ७ राज्यपाल और सात बार मुख्यमंत्री बदल गए. गरीबो को खाना नहीं मिल रहा है , लोग गरीबी और भूख से मर रहे हैं गरीबो के पास सर छुपाने कों छत नहीं है गरीब की बेटियों की शादियाँ रुकी हुई है केओंकी मुख्यमंत्री कन्यादान योजना ठप्प पड़ी है , और ये नेता बजाये गरीब जनता के बारे में सोचने के वातानुकूलित कमरों में मजमा लगा कर अपनी कुर्सी बचाने की जुगत लगा रहें हैं . झारखण्ड , उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ इन तीनो राज्यों का गठन एक ही दिन १५ नवम्बर २००० को हुआ मगर झारखण्ड लगातार विकास के पायदान पर नीचे फिसलता चला गया वही दोनों राज्य बहुत आगे चले गएँ हैं . तो क्या झारखण्ड की अवधारणा विफल हो चुकी है ? किसी भी राज्य के विकास के लिए प्रभावी शासन तंत्र होना बहुत ज़रूरी है राजनीतिक अस्थिरता के कारण गवेर्नेस प्रभावित होता है , सोचिये झारखण्ड की क्या गति है की यहाँ शासन तंत्र मौजूद ही नहीं है . जबकि इसके साथ बने दोनों राज्यों में स्थिति झारखण्ड के मुकाबले कहीं बेहतर है .बाबूलाल मरांडी के बाद देखें तो हर सरकार ने इस राज्य को दुधारू गाय की तरह दुहा . सरकार के मंत्री और नौकरशाह अमीर होते गए और जनता लुटती गयी . आज झारखण्ड में सडकें नहीं हैं , शिक्षा की सुविधा नहीं है , हर तरह के खनिज और प्राकृतिक संपदाओं से भरपूर यर राज्य चंद स्वार्थी नेताओं की वज़ह से अपनी बदहाली पर सिसक रहा है . आखिर झारखण्ड में सुशासन के मायने क्या हैं समाज नहीं आता . एक इंस्पेक्टर रेंक का अधिकारी सी. एम्. को सीधे काम के लिए बोलता है , यह संकेत है इस बात का की झारखण्ड में राजनीति का स्तर किस कदर गिर चुका है .किसी पद की कोई गरिमा नहीं रह गयी है , बस एक प्रतिस्पर्धा सी चल पड़ी है की कौन कितना अधिक लूट सकता है , जनता गयी भाड़ में . आज मधु कोड़ा पर दिन पर दिन नए- नए आरोप लग रहें हैं , जांच हो रही है , क्यों नहीं कोई अर्जुन मुंडा पर जांच की बात करता , जिनकी सरकार में न जाने क्या -क्या नहीं हुआ , कांग्रेस ने कहा था की चुनाव के बाद झारखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्रीओं की संपत्तियों की जांच करवा कर दोषी लोगो को को जेल भेजा जायगा , तो क्या सिर्फ मधु कोड़ा ही कमज़ोर है ? मैंने मधु कोड़ा को देखा है एक इमानदार आदमी को को पहले बेईमान बनाया गया फिर चोर और फिर जेल में डाल दिया .क्या गलती थी उस आदमी की की उसने एक पार्टी विशेष कों समर्थन नहीं दिया ? बस उसी की सजा , तो ठीक है शाबाश मधु कोड़ा आज तक का राजनेतिक सफ़र जब अपने दम पर तय किया है तो ये समय भी निकल जायगा और झारखण्ड के लोग एक नए मधु कोड़ा कों देखेंगे । महा घोटाला हुआ मगर सारा मधु चतुर और चालाक लोग ले उड़े किसी भी परिवार मैं जब कोई सदस्य बदमाशी करता है तो हमेशा से परिवार का मुखिया बदनाम होता है यही मधु कोड़ा के साथ हुआ है ।

सोमवार, 11 जनवरी 2010

शर्म करो जमशेदपुर पुलिस आम आदमी खतरे में है


कल जब जमशेदपुर के हर चौक चौराहों पर आर्म्स जाँच के नाम पर पुलिस जमशेदपुर में आम आदमी कों परेशान कर रही थी उसी समय बड़ी आराम से अपराधिओं ने शाम के .३० बजे टाटा मुख्य अस्पताल के चिकित्सक डॉक्टर आशीष रॉय कों बड़ी आराम से गोली मार दी और चलते बने यह घटना उस इलाके में घटी ज़हां पुलिस की चौकसी सब से ज्यादा रहती है। शहर में हत्याओं का दौर ज़ारी है मगर निक्कमी जमशेदपुर पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी है कौन बताये इस पुलिस को की चौक चौराहों पर मोटरसाइकिल से चलने वाले आम आदमी कों रोककर पूछताछ करने से अपराध पर नियंत्रण नहीं होगा इसके लिए सकारात्मक पहल करनी होगी मगर कब एक मंज़र मैं आपकोबताता हूँ,अन्दर डी आई .जी बैठें हैं और शहर में हो रही अपराध की समीक्षा कर रहें हैं अचानक से एक लड़की सामने आती है " सर मुझे बचा लीजिये में एक लडके के चंगुल में फँस गयी हूँ अब वो मुझे ब्लैकमेल कर रहा है ,उसने मेरा सामाजिक जीवन बर्बाद कर दिया है में थाना गयी , डी एस पी के पास गयी एस पी के पास गयी मगर कोई करवाई नहीं हुई डी आई जी का ज़वाब चौकाने वाला था , तो में क्या करूँ आप थाना जाइए केस कीजिए तभी में कुछ कर सकता हूँ पागल लड़की, थाना से ही मामला निपट जाता . पुलिस कों १०,०००० रूपया देती लडके कों थाना में ला कर दम तक वही पुलिस मारती और मामला ख़त्म हो जाता ये है पुलिस का असली रूप आज एस पी नवीन कुमार सिंह परेशान हैं शहर में विधि- व्यवस्था चौपट है मगर लगाम नहीं लगा पा रहें हैं क्या कारण है? ज़ाहिर है की पुलिस में मुकुंद सिंह , शम्भू नाथ सहाय, मिथिला बिहारी शुक्ला,जैसे कुछ गद्दार और देशद्रोही लोग हैं जो पैसे के लिए किसी भी हद तक जा सकतें हैं आज पुलिस का रूप अपराधी से ज़यादा विकृत हो चला है , डॉक्टर प्रभात कुमार मारे गए एक हफ्ता नहीं हुआ की तुषार बागडिया मारा गया , इन्दर पाल सिंह मारा गया , डॉक्टर आशीष रे पर गोली चली ये सब इस स्टील सिटी की जाने पहचानी हस्तियाँ थीं फिर आम आदमी की क्या औकात ? आखिर कौन है जो इस शहर को जला देना चाहता है और पुलिस क्यों इस पर लगाम नहीं लगा पा रही है ज़ाहिर है की अपराधी या तो पुलिस से ज्यादा चालाक है या कुछ पुलिस वाले उन लोगो से मिले हुए हैं जो एस पी कों भी गुमराह कर रहें हैं नवीन कुमार सिंह एक्शन पर यकीन करने वाले व्यक्ति हैं मगर इन अपराधिओं के आगे उनकी भी नहीं चल रही है ज़ाहिर है उनको अपने विभाग के लोगो का सहयोग नहीं मिल रहा है। अगर ऐसा है तो इस शहर का भगवान् ही मालिक है आज परवेज़ हयात , रविन्द्र कुमार , डॉक्टर अजय कुमार बड़ी याद रहें है ये वही आई पी एस हैं जिनलोगों ने अपनी कार्यशेली से इस शहर कों अपराधमुक्त किया था ऐसा नहीं है की आज काबिल पुलिस ऑफिसर नहीं हैं मगर शायद या तो वो काम नहीं करना चाहते या काम से दूर कर दिए गए हैं अब लाख टके का सवाल यह है की क्या होगा इस शहर का , क्या लोग यूं ही मारे जाते रहेंगे , पुलिस से तो होने से रहा तो आम आदमी की सुरक्षा की गारंटी कौन देगा ? सब से बड़ी बात है की पुलिस अपराधिओं तक पहुँच नहीं पाती उस से पहले ही एक नयी वारादात हो जाती है आखिर कब तक चलेगी ये खून की होली ?.......................................इसका ज़वाब शायाद किसी के पास भी नहीं है एक मीडिया पर्सन होने के नाते मैं परेशान हूँ और सोचने कों मजबूर भी की आखिर पुलिस-अपराधी गठबंधन से नुकसान किसका है ...........समाज का क्यों नहीं पुलिस ईमानादारी से अपना काम करती और ये सोचती है की वो भी इसी समाज का एक हिस्सा है खैर कभी तो सोचेगी ................मगर तब तक देर हो जाए

रविवार, 6 सितंबर 2009

आरुशी तलवार हत्याकांड और सी बी आई की भूमिका



नॉएडा का बहुचर्चित आरूषी तलवार ह्त्याकाण्ड एक बार फिर चर्चा में है मगर किसी रहस्य पर से परदा उठाने को ले कर नही बल्कि सी बी आई की नकारात्मक भूमिका की वज़ह से देश की सर्वोच्च जांच एजेन्सी का यह रूप गले नही उतरता ज़ाहिर है की सबसे निष्पक्ष माने जाने वाली यह संस्था सत्ता के हाथ का खिलौना बन चुकी है जिसे सत्ताधारी दल जब चाहे बंदर की तरह नचाते रहतें हैं कितने आश्चर्ये की बात है की आरुशी हत्याकांड मैं शुरू से ही कोताही बरती गयी और जब मामला केन्द्रीय जांच ब्यूरो को सौपा गया उसके बाद भी इसमें कोई कमी नही आयी। आज जब जांच पूरी हो चुकी है तो यह बात सामने रही है की उसके साथ यौन दुर्व्याभार हुआ की नही इसे जांचने के लिए उस समय प्रयोगशाला को शरीर के तरल पदार्थ का जो नमूना भेजा गया था वो किसी और महिला का था आरुशी के हत्यारों का सी बी आई भी पता नही लगा पाई और अगर लग भी गया की ऊसकी हत्या किसने की थी तो सबूत के आभाव में सभी हत्यारों को राहत मिल जायेगी अब लाख टके का सवाल ये है की इस जांच में सी बी आई से चूक हुई है या जान बूझ कर उसे अपना काम करने से रोका गया है केओंकी यह इतना कठिन और उलझा हुआ केस नही था की सी बी आई जैसी जांच एजेन्सी को हत्यारों का पता लगाने में कोई कठिनाई होती मगर ऐसा हुआ नही चिंता का विषय है केओंकी सी बी आई के अधिकारी इस बात के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित किए जातें हैं की वो बिना किसी दवाब के अपना काम ईमानादारी से कर के दोषिओं को सजा दिलवायेंगे चाहे वो कितना भी प्रभावशाली वयक्ति केओं हो मगर आज इस एजेन्सी की परिभाषा बदल चुकी है अब उसी को सजा मिलेगी जो पॉवर मैं नही है पॉवर मैं रहने वालो का कोई कुछ भी नही बिगाड़ सकता कहने की ज़रूरत नही की जांच एजेन्सीओ का काम सिर्फ़ जांच तक ही सीमित नही होता जांच कर सबूतों के साथ अपराधी को उसके अंजाम तक पहुंचाना भी होता है मगर यहाँ तो जांच ही सही ढंग से नही हुई अपराधी अंजाम तक क्या ख़ाक पहुचेंगे हम एक समाज मैं रहतें हैं जिस पर कानून का नियंत्रण होता है और कानून की हुकूमत तभी कायम रह सकती है जब अपराधिओं में उसका खौफ हो और लोगो को उस पर भरोसा खैर ये तो मामले का एक पहलू है अब ज़रा देखिये मीडिया की भूमिका को मीडिया भूल गयी की हम भारतीय समाज मैं रह रहें है जहाँ किसी लड़की की इज्ज़त को ढंका जाता है उसे सरे आम नीलाम नही किया जाता मगर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इस हत्याकांड को सनसनीखेज़ कथा में तब्दील कर दिया ज़रा सोचिये और अंदाजा लगाईए तलवार दंपत्ति को कितनी जिल्लत झेलनी पड़ी तिस पर भी उन्हें इन्साफ नही मिला एक घर एकलौते बच्चे के असमय जाने से कैसे टूटता है इश्वर करे की किसी को इस पीड़ा को महसूस करना पडे मगर आज आरुशी की आत्मा ज़रूर इन्साफ के लिए तड़प रही होगी और हंस रही होगी इस कानून का पालन और इन्साफ के नाम पर किए जाने वाले ढोंग को देख कर क्या कर सकते है हम उस देश मैं रहते हैं जहाँ कहने को तो लोकतंत्र है मगर उपर से नीचे तक गूंगो और बहरों की फौज बैठी है जिनकी डोर किसी और के हाथ मैं है सी बी आई की हालत भी वही है अब वो जांच एजेन्सी हो कर सत्ताधारी पार्टी के हाथो का खिलौना बन बैठी है । शायद यही कारण है की अब सी बी आई जांच की बात सुन कर बजाए खौफजदा होने के लोग बडे आराम से कह देतें हैं .....................अरे कोई ख़ास बात नही आराम से बच जायगा । आज आरुशी के लिए अफ़सोस हो रहा है और दिल मैं एक बात उठ रही है काश मीडिया और सी बी आई ने अपनी भूमिका सही ढंग से निभाई होती तो आरुषि को इन्साफ मिल गया होता । एक मीडिया पर्सन होने के नाते यह कहने मैं मुझे कोई संकोच नही की ........................ हमे माफ़ करना आरुषि तलवार कही हममें कोई कमी रह गयी

बुधवार, 25 मार्च 2009

जमशेदपुर पुलिस का वीभत्स चेहरा

कल रात जमशेदपुर पुलिस के आरक्षी उपाधीक्षक तेजवान उराँव और पुलिस के सीपाहीओं ने जमशेदपुर के पुराने अखबारों में एक चमकता आइना के संपादक ब्रजभूसन सिंह के साथ मारपीट और लूटपाट किया इससे पुलिस का वीभत्स चेहरा खुल कर सामने गया है मीडिया वालों के साथ पुलिस का यह सलूक है तो आम जनता का क्या हाल होता होगा बोलने की ज़रूरत नही है पुलिस शब्द का मतलब होता है पुरुषार्थयुक्त , लिप्सराहीत , सेवक मगर ऐसे भ्रस्थ पुलिसवालों ने पुलिस शब्द के मायने ही बदल दियां हैं इस पर भी पुलिस अधीक्षक की खामोशी गले नही उतरती निष्पक्ष पत्रकारिता कुर्बानी. मांगती है मैने पुलिस अपराधी गठबंधनके बहुत अत्याचार सहे हैं इसलिए यह बात बड़ी बेबाकी से कह सकता हूँ असल में पुलिस अत्याचार को रोकने के लिए कोई माकूल कानून ही नही बना है अगर कोई पुलिस वाला आप पर अत्याचार करता है तो आप एस पी को शिकायत करेंगे और उसकी जांच कोई कनीय पुलिस अधिकारी करेगा और अत्याचार करने वाला साफ़ बच जायगा यह होता रहा है और होता रहेगा जबकि होना यह चाहीये की जांच रिपोर्ट आने के बाद उसके तकनीकी पहलुओं को देख कर के निष्कर्ष निकला जाए और यदि अधिकारी दोषी पाया जाए तो उस पर अपराध के हिसाब से कानूनी धाराओं के तहत प्राथमीकी दर्ज की जाए देखिये पुलिस जुल्म कैसे नही कम होगा , कानून का शिकंजा जब कसता है तो अच्छे -अच्छे सुधर जातें हैं। झारखण्ड को ज़रूरत है प्रकाश सिंह जैसे डी जी पी की फिर देखिए पुरा तंत्र कैसे सुधरता है जब एक शिक्षित आदमी पुलिस के हाथों तंग होता है तो उसके खिलाफ अपनी लड़ाई कलम के माध्यम से लड़ता है मगर गरीब और कम पढ़ा लिखा लाचार आदमी अपराध का रास्ता अख्त्यार करलेता है मुझे यह कहने में कोई संकोच नही की पुलिस जुल्म भी एक कारण है जिसके कारण अपराधी जन्म लेतें हैं महज़ कुछ रुपयों के लिए यह पुलिस वाले आम आदमी को किस तरह तंग करतें हैं झूठे मुकदमों में फसाते हैं यह मुझसे ज़यादा कौन जान सकता है ? पुरी व्यवस्था कुरुछेत्र है और ज़रूरत है फिर से एक कृषण की, नए युग की स्थापना की मैं जानता हूँ की ब्रजभूसन सिंह पर किया गया यह हमला पुलिस माफिया गठबंधन की हीकरतूत है मगर साथ ही यह भी जानता हूँ की उनको कोई भी शक्ति अपने कर्तव्य पथ से नही हटा सकती मुझे उनपर गर्व है और सारे पत्रकारिता जगत को होना चाहिए इस हमला ने एक बार फिर कलम की ताकत को सिद्ध किया है मैं यह जानता हूँ की उनकी तारीफ बहुत से लोगों को अच्छी नही लग रही होगी मगर मुझे कड़वा सच बोलने की आदत है अपने को रोक नही पाता अभी परीक्षा की घड़ी है केओंकी यह पूरे पत्रकारिता जगत पर हमला है इसलिए हर पत्रकार को चाहिये की आपसी मतभेद भुला कर अपनी ताकत का इन लोगों का एहसास करा दे। केओंकी अब देश आज़ाद है और पुलिस जनता की नौकर है , उसे अपनी औकात का एहसास करना ही होगा

रविवार, 22 मार्च 2009

मेरे पसंदीदा आई . पी . एस. अधिकारी श्री रविन्द्र कुमार और परवेज हयात

निष्पक्ष पत्रकारीता के इस महासंग्राम की शुरुआत मेरे पिताजी ने सन १९९० में किया था पुलिस ओर अपराधी गठजोड़ के ख़िलाफ़ मिथिला बिहारी शुक्ला एक दरोगा हुआ करता था उसने पुलिस की वर्दी पहनी ही थी नाज़याज़ कमाई करने और शरीफ लोगों को परेशान करने के लिए मीडिया का उस समय जादूगोड़ा में कोई प्रभाव नही था और वैसे भी जादूगोड़ा मुर्दों की बस्ती है उस नामाकुल दरोगा का हर दुकानदार से उसकी कमाई का प्रतिशत की रंगदारी बंधी हुई थी क्या मजाल की कोई कुछ बोल दे हाज़त में बंद कर के बहुत मारता था मेरे पिताजी से भी हराम की कमाई करना चाहा पिताजी ने उसके फरमान को ठुकरा दिया बस शुरू हुआ गुंडों के साथ परेशान करने का सिलसिला अति हो गयी पिताजी को लगा की अब इसके अत्याचार का अंत करना चाहिए बस उदितवाणी अखबार के मध्याम से उसकी काली करतूतों को प्रकाश में लाना शुरू किया महीने में जनाब कई बार लाइन हाज़िर हुआ और फिर उसके अत्याचार से परेशान जादूगोड़ा के डोरकासाईँ गावों के लोगों ने उसकी बेटी पत्नी और भाई के साथ शुक्ला की जम कर पिटाई कर दी इस दारोगा को उसकी करतूतों की सजा तात्कालीन आई पी एस अधिकारी श्री रविन्द्र कुमार ने दिया वो उस समय जमशेदपुर के एस पी थे मैं दिल से उनका धन्यवाद करता हूँ वो जब तक जमशेदपुर में रहे गरीबों को पुलिस से डर नही लगा मेरे दुसरे पसंदीदा आई पी एस अधिकारी हैं श्री परवेज़ हयात साहब जिन्होने जमशेदपुर को अपराधमुक्त करने में अहम् भूमिका निभाया हाँ उनपर चंद स्वार्थी तत्वों ने जातिवाद का आरोप लगाया मगर मैं उस बात को नही मानता केओंकी मैं जानता हूँ की अच्छे काम करने पर स्वार्थी तत्वों को तकलीफ तो होती ही है वो मेरा खूब उत्साह बढाते थे मुझे याद है की जादूगोड़ा थाना का एक मुंशी जिसका नाम एम् एम् आलम था एक बार किसी से ५०/- रुपये की रिश्वत मांग लिया था संयोग से हयात साहब जादूगोड़ा एक कार्यक्रम मैं आए हुए थे उन्हें पता चला और उन्होने ख़ुद जांच कर तुंरत उस मुंशी को लाइन हाज़िर कर दिया पत्रकारों ने भी उनके कार्यकाल में बहुत सम्मान पाया वज़ह उनकी निष्पक्ष कार्यशैली रही , जिसका मैं कायल हूँ और हर आदमी को होना चाहिए आज इन दोनों अधिकारीओं ने अपने काम की बदौलत अपनी अलग पहचान बनाई है

शनिवार, 21 मार्च 2009

मेरे मार्गदर्शक

अपनी सफलता की कहानी मैं मैं उन नायकों को कभी नही भूल सकता जिन्होने मुझे मुसीबतों से लड़ने की प्रेरणा दी और जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से हमेशा मेरी सहायता करते रहे डॉक्टर हारुन रशीद खान और वी श्रीनिवास राव यह ऐसे नाम हैं जो मेरी जिंदगी मैं बहुत कम समय के लिए आए मगर कभी खत्म होने वाला रिश्ता बना गये ।यह दोनों वयक्ति परमाणु उर्जा केंद्रीय विद्यालय जादूगोड़ा के प्राचार्य थे अनुशासन के पक्के शायद इसलिए तानाशाह के नाम से मशहूर ,मगर उनको तानाशाह कहने वाले लोगों से मैं यह हमेशा पूछता रहूँगा की कोई एक काम बता दें जिससे उन लोगों ने अपना भला किया हों किसी के पास जवाब नही है साफ़ बात है की एक अच्छा प्रशाषक हमेशा ही बुरा होता है डाक्टर खान वो पहले शख्श हैं जिन्होने मुझे हमेशा अपने सिद्धांतो के साथ आगे बढ़ना सिखाया और मुझे अनुशासन की वो गूढ़ बातें सिखाई जो आज तक मुझे याद हैं और सम्मान दिला रहें हैं वी श्रीनिवास राव सर से मेरा परिचय सन २००४ मैं हुआ था वो युवा हैं और धुन के पक्के और काम के प्रति ईमानदार भी जब मैं परेशान होता तो उनके पास पहुँच जाता था और वे सारा काम छोड़कर मेरी समस्या का समाधान करते थे उन्होने मुझे सिखाया की परेशानी को मेहमान की तरह समझो केओंकी वो आती ही जाने के लिए है केवल अपने लक्ष्य पर नज़र रखो और अपना काम पुरी निष्ठा से करते जाओ बुरे लोग तुम्हारा कुछ नही बिगाड़ सकते।आज मैं इस सिद्धांत की शक्ति को मानता हूँ इन दोनों गुरुओं ने कभी मुझे पढाया नही पर आंशिक रूप से जो बातें सिखा दिया वो मेरी शक्ति बन गया इसके लिए मैं इनका आजीवन ऋणी रहूँगा इनलोगों ने इस बात की सार्थकता को सिद्ध कर दिया की अनुशाशन ही व्यक्ति और समाज को सफल बनता है